अध्याय ➽ 01. 02. 03. 04. 05. 06. 07. 08. 09. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. मुख्य पृष्ठ.
अध्याय 17
महापुरोहित मसीह की प्रार्थना
1) यह सब कहने के बाद ईसा
अपनी आँखें ऊपर उठाकर बोले, "पिता! वह घडी आ गयी है।
अपने पुत्र को महिमान्वित करे जिससे पुत्र
आप कि महिमा प्रकट करे।
2) आप ने उसे समस्त मानव
जाति पर अधिकार दिये है, जिससे वह उन सबों को अनन्त जीवन
प्रदान करे, जिन्हें आप ने उसे सौंपा है।
3) वे आप को, एक ही सच्चे ईश्वर को और ईसा मसीह को, जिसे आप ने
भेजा है जान लें- यही अनन्त जीवन है।
4) जो कार्य आप ने मुझे
करने को दिये थे वह मैंने पूरा किया है। इस तरह मैंने पृथ्वी पर आप कि महिमा प्रकट
की है।
5) पिता! संसार की सृष्टि
से पहले मुझे आप के यहाँ जो महिमा प्राप्त थी, अब उस से मुझे
विभूषित करे।
6) आप ने जिन लोगो को
संसार में से चुनकर मुझे सौंपे, उन पर मैने आप का नाम प्रकट
किया है। वे आप ही के थे। आप ने उन्हें मुझे सौंपा और उन्होंने आप कि शिक्षा का
पालन किया है।
7) अब वे जान गये हैं कि
आप ने मुझे जो कुछ दिये है वह सब आप से आता है।
8) आप ने जो संदेश मुझे
दिये, मैने वह सन्देश उन्हें दे दिया। वे उसे ग्रहण कर यह
जान गये है कि मैं आप के यहाँ से आया हूँ और उन्होंने यह विश्वास किया कि आप मुझे
भेजे हैं।
9) मैं उनके लिये विनती
करता हूँ। मैं ससार के लिये नहीं, बल्कि उनके लिये विनती
करता हूँ, जिन्हें आप ने मुझे सौंपा है; क्योंकि वे आप के ही हैं।
10) जो कुछ मेरा है वह आप
का है और जो आप का है, वह मेरा है। मैं उनके द्वारा
महिमान्वित हुआ।
11) अब मैं संसार में नहीं
रहूँगा; परन्तु वे संसार में रहेंगे और मैं तेरे पास आ रहा
हूँ। परमपावन पिता! आप ने जिन्हें मुझे सौंपा है, उन्हें अपने
नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रखे, जिससे वे हमारी ही तरह एक
बने रहें।
12) आप ने जिन्हें मुझे
सौंपा है, जब तक मैं उनके साथ रहा, मैंने
उन्हें आप के नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रखा। मैंने उनकी रक्षा की। उनमें किसी
का भी सर्वनाश नहीं हुआ है। विनाश का पुत्र इसका एक मात्र अपवाद है, क्योंकि धर्मग्रन्थ का पूरा हो जाना अनिवार्य था।
13) अब मैं तेरे पास आ रहा
हूँ। जब तक मैं संसार में हूँ, यह सब कह रहा हूँ जिससे
उन्हें मेरा आनन्द पूर्ण रूप से प्राप्त हो।
14) मैंने उन्हें आप कि
शिक्षा प्रदान किया हूं। संसार ने उन से बैर किया, क्योंकि
जिस तरह मैं संसार का नहीं हूँ उसी तरह वे भी संसार के नहीं हैं।
15) मैं यह नहीं माँगता कि
आप उन्हें संसार से उठा ले, बल्कि यह कि आप उन्हें बुराई से
बचाए।
16) वे संसार के नहीं है
जिस तरह मैं भी संसार का नहीं हूँ।
17) आप सत्य की सेवा में
उन्हें समर्पित करे। आप कि शिक्षा ही सत्य है।
18) जिस तरह आप ने मुझे
संसार में भेजे है, उसी तरह मैंने भी उन्हें संसार में भेजा
है।
19) मैं उनके लिये अपने को
समर्पित करता हूँ, जिससे वे भी सत्य की सेवा में समर्पित हो
जायें।
20) मैं न केवल उनके लिये
विनती करता हूँ, बल्कि उनके लिये भी जो, उनकी शिक्षा सुनकर मुझ में विश्वास करेंगे।
21) सब-के-सब एक हो जायें।
पिता! जिस तरह आप मुझ में है और मैं आप में, उसी तरह वे भी
हम में एक हो जायें, जिससे संसार यह विश्वास करे कि आप ने
मुझे भेजा।
22) आप ने मुझे जो महिमा
प्रदान किये, वह मैंने उन्हें दे दी है, जिससे वे हमारी ही तरह एक हो जायें-
23) मैं उनमें रहूँ और आप मुझ
में, जिससे वे पूर्ण रूप से एक हो जायें और संसार यह जान ले
कि तूने मुझे भेजा और जिस प्रकार आप ने मुझे प्यार किया, उसी
प्रकार उन्हें भी प्यार किया।
24) पिता! मैं चाहता हूँ
कि आप जिन्हें मुझे सौंपे है, वे जहाँ मैं हूँ, मेरे साथ रहें जिससे वे मेरी महिमा देख सकें, जिसे
आप मुझे प्रदान किये है; क्योंकि आप संसार की सृष्टि से पहले
मुझे प्यार किये।
25) न्यायी पिता! संसार ने
तुझे नहीं जाना। परन्तु मैंने आप को जाना है और वे जान गये कि आप ने मुझे भेजा।
26) मैंने उन पर आप का नाम प्रकट किये है और प्रकट करता रहूँगा, जिससे आप ने जो प्रेम मुझे दिया, वह प्रेम उन में बना रहे और मैं भी उन में बना रहूँ।